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भागवत ग्रंथ की प्रासंगिकता कभी खत्म नहीं हो सकती – पं. शास्त्री

17 अक्टूबर को महालक्ष्मी महायज्ञ

छावनी अनाज मंडी में चल रहे भागावत ज्ञान यज्ञ का कृष्ण सुदामा मिलन के साथ हुआ समापन

इंदौर, । हमारी हिन्दू संस्कृति किसी का अनादर और अपमान नहीं करती, इसिलए भारतीय संस्कृति को सनातन माना गया है। इतिहास साक्षी है कि सनातन कभी समाप्त नहीं होने वाला धर्म है। सनातन धर्म से ही भारत भूमि की पहचान है। हमारे कर्मों में सदाचार, संस्कार और परमार्थ का चिंतन ही सच्चा भागवत धर्म है। भगवान भोग के नहीं भाव के भूखे हैं। भागवत धर्म बहुत व्यापक है। यह केवल ग्रंथ नहीं, हम सबके लिए ज्ञान और भक्ति के साथ सेवा के मार्ग पर ले जाने वाला प्रकाश स्तंभ है, जो चौराहे पर भटक रहे यात्री को सही दिशा का बोध कराता है। भागवत जैसे धर्मग्रंथों की प्रासंगिकता कभी खत्म नहीं हो सकती। भागवत के श्रवण से भक्ति रूपी पुरुषार्थ का उदय होता है। भारत भूमि ऐसी धरोहरों के कारण ही विश्व वंदनीय रही है।

       कथा में सुदामा-कृष्ण मिलन का उत्सव भी मनाया गया।  प्रारंभ में आयोजन समिति की ओर से मंडी अध्यक्ष संजय अग्रवाल, वरुण मंगल, आशीष मूंदड़ा, विजय लाला, राजा बाबू,  दिनेश अग्रवाल, समाजसेवी विष्णु बिंदल, अरविंद बागड़ी, विधायक संजय शुक्ला, महेन्द्र हार्डिया, सुनील शाह, अखिलेश शाह आदि ने व्यासपीठ का पूजन किया। आयोजन समिति की ओर से डॉ. शास्त्री का आत्मीय एवं गरिमापूर्ण सम्मान भी किया गया। अब मंगलवार, 17 अक्टूबर को महालक्ष्मी महायज्ञ का दिव्य आयोजन भी मंडी प्रांगण में सुबह 9 बजे से प्रारंभ होगा। श्री श्रीविद्याधाम के आचार्य इस यज्ञ का संचालन करेंगे।

भागवताचार्य डॉ. शास्त्री ने कहा कि भगवान कृष्ण ने भी दुष्टों के नाश के लिए हिंसा का प्रयोग किया लेकिन उनकी हिंसा में विवेक और कल्याण का भाव था। सुदामा तीन मुट्ठी चावल के लिए चार घरों में याचना करने जाते थे लेकिन उन्हें भगवान के वैभव एवं राजमहल से कोई द्वेष नहीं था। भगवान चाहते तो अपने बालसखा को एक क्षण में ही अमीर बना सकते थे, लेकिन उन्होंने पहले सुदामा को निर्धनता प्रदान की। भगवान एक दार्शनिक और चिंतक भी हैं इसीलिए उनके कर्मों को सारी दुनिया पूजती और याद रखती है। दूसरों की संपत्ति देखकर खुश रहना भी हमें आना चाहिए।  हमें सात पीढियों के भरण-पोषण का धन वैभव भी मिल जाए तो संतुष्टि नहीं होती। भागवत का पहला सूत्र यही है कि बहुत कम समय के जीवन में हम संतुष्ट और प्रसन्न रहने का पुरूषार्थ करें। सुख-दुख आते-जाते रहते हैं लेकिन अपनी पूर्ति के बाद भी हम नर में नारायण के दर्शन की अनुभूति करते रहें, धर्मसभा के साथ गृहसभा की जिम्मेदारी भी निभाएं और परमार्थ, सदभाव, अहिंसा एवं सहिष्णुता का विवेकपूर्ण इस्तेमाल करें, यही धर्म का सही स्वरूप होगा।

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