कंस और रावण जैसी प्रवृत्तियों के प्रतिकार के लिए समाज संगठित बने- पं. राहुल शास्त्री

इंदौर से विनोद गोयल की रिपोर्ट :—-
इंदौर, भागवत केवल ग्रंथ नहीं, भारत भूमि का धर्म भी है। जीवन का ऐसा कोई सूत्र नहीं, जिसका समाधान भागवत में नहीं हो। भगवान कृष्ण ने दुष्टों के नाश के लिए हिंसा का प्रयोग किया, लेकिन उनकी हिंसा में विवेक और कल्याण का भाव था। हिन्दू संस्कृति किसी का अनादर और अपमान नहीं करती, इसीलिए भारतीय संस्कृति को सनातन कहा गया है। हमारे कर्मों में सदाचार, संस्कार और परमार्थ का चिंतन ही सच्चा भागवत धर्म है। कंस व्यक्ति नहीं, प्रवृत्ति का नाम है। आज भी समाज में कंस और रावण जैसी प्रवृत्तियां मौजूद हैं। उनके प्रतिकार के लिए समाज को संगठित बनने की जरूरत है। नर में नारायण के दर्शन का भाव जब तक हमारे अंतर्मन में नहीं बनेगा, हमारी पूजा और तीर्थ यात्रा अधूरी ही होगी। भगवान भोग के नहीं, भाव के भूखे हैं।
श्री श्रीविद्याधाम के आचार्य पं. राहुल कृष्ण शास्त्री के, जो उन्होंने देवेन्द्र नगर, अन्नपूर्णा रोड स्थित ‘पंचामृत सदन’ पर बैसाख माह के उपलक्ष्य में आयोजित भागवत ज्ञान यज्ञ के दौरान कृष्ण-रुक्मणी विवाह प्रसंग में व्यक्त किए। कथा शुभारंभ के पूर्व आद्य गौड़ ब्राह्मण सेवा न्यास के अध्यक्ष पं. दिनेश शर्मा, श्रद्धा सुमन सेवा समिति के मोहनलाल सोनी, अ.भा. अग्रवाल महासभा के दिनेश जिंदल, सेवा सुरभि के संयोजक ओमप्रकाश नरेड़ा आदि ने व्यासपीठ का पूजन किया। संतों की अगवानी श्रीमती शालिनी जैन, वीणा शर्मा, भारती दुबे, निर्मला गुप्ता, भारती कुमावत आदि ने की।
पं. शास्त्री ने कहा कि भगवान कृष्ण ने पूतना से लेकर कंस तक के वध किए, लेकिन उनकी हिंसा में समाज के प्रति कल्याण का भाव था। कंस किसी व्यक्ति का नहीं, बल्कि प्रवृत्ति का नाम है। समाज में आज भी कंस और रावण की प्रवृत्तियां मौजूद हैं। उनके नाश के लिए कृष्ण और राम का अवतार जब होगा, तब होगा लेकिन समाज को संगठित होकर ऐसी राक्षसी प्रवृत्तियों का मुकाबला करने के लिए तत्पर रहना होगा। भागवत शस्त्र भी है और शास्त्र के प्रयोग की इजाजत भी देता है। भागवत का पहला सूत्र यही है कि बहुत कम समय के जीवन में हम संतुष्ट और प्रसन्न रहने का पुरुषार्थ करें। धर्म सभा के साथ गृहसभा की जिम्मेदारी भी निभाएं और परमार्थ, सदभाव, अहिंसा एवं सहिष्णुता का विवेकपूर्ण प्रयोग करें, यही धर्म का सही स्वरूप होगा।