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सद्प्रेरणा से चमकती है बच्चों की तकदीर – आचार्य श्री सुधंशु महाराज

 

मानव जीवन ईश्वर का अनुपम उपहार है। परमपिता परमात्मा की अद्भुत कृपा ही है कि इस दिव्य रचना में उसने अपने अद्भुत कौशल का प्रदर्शन किया है। मनुष्य की सच्चरित्राता एवं उसके द्वारा किए गए अच्छे कार्यों से इस जगत का कल्याण होता है।
किसी मनुष्य के द्वारा किए गए सत्कार्यों की प्रेरणा बचपन में विरासत के रूप में मिले हुए सुसंस्कारों का सुपरिणाम होता है। कोई भी धतु या वस्तु अपने मूलरूप में उतना आकर्षण नहीं पैदा करती जितना कि उसे कुछ सजा- संवार कर एक सुन्दर आकृति में परिणत कर उसमें आकर्षण बढ़ाया जा सकता है। किसी विशेष धतु की अपेक्षा उससे निर्मित आभूषण लोगों को ज्यादा आकर्षित करते हैं।
यही निर्माण की प्रक्रिया मनुष्य में भी साबित होती है जब उसका निर्माणकाल होता है। अर्थात जब वह छोटी उम्र का बालक होता है। तभी वह अनुकरण के द्वारा जगत के सारे उपक्रम सीखता है। अब प्रश्न यह है कि उसे कैसा अनुकरण मिला?यदि वह अपने परिवेश में सच्चरित्राता एवं सदाचरण के व्यवहार एवं बर्ताव का अवलोकन करता है तो वह सुसंस्कारित होगा। वैसे तो गर्भ में ही माता-पिता के द्वारा किए हुए आचरणों का शिशु पर गहरा प्रभाव पड़ता है। भक्त प्र“लाद और वीर अभिमन्यु इस बात के सशक्त प्रमाण हैं।
अतएव बालक के जन्म के बाद ऐसे परिवेश का निर्माण करना चाहिए। जिसमें सुसंस्कार, सद्विचार एवं सदाचार की मनमोहक सुगन्ध् समाहित हो, जो कि उसके सुकोमल मन को सुवासित कर सके। माता-पिता एवं परिवार के सदस्यों को कोई भी ऐसा बर्ताव नहीं करना चाहिए जो कि उनके स्वयं के प्रतिकूल हो। यदि ऐसा करते हैं तो उन्हें इसका दुष्परिणाम भुगतना पड़ेगा, क्योंकि शिशु एक ऐसा चिराग है। जो किसी भी माता-पिता के भविष्य का प्रकाश स्तम्भ बनता है। यदि उसे अच्छी बातें देखने एवं सुनने को मिलती हैं तो उसके अनुरूप वह भी ढलेगा। इसके विपरीत यदि वह घर-परिवार में दुष्प्रवृत्तियों के चलन को देखेगा तो उस पर बुरा असर पड़ेगा और वह अच्छे के बजाय बुरा इंसान बन जाएगा।
इसलिए माता-पिता एवं पारिवारिकजनों का कर्त्तव्य है कि बच्चे को ऐसी प्रेरणा एवं सीख दें ताकि वह अपने जीवन पथ में सपफल होकर स्वयं के लिए, समाज के लिए, राष्ट्र एवं विश्व के लिए सुखद एवं सुवासित पूफलों से भरे गुलशन का निर्माण कर सकें। उसमें ऐसी सद्वृत्तियां आ जाएं कि उसका बताया हुआ मार्ग युगों-युगों तक प्रेरणा पुंज बनकर लोगों को प्रेरित करता रहे।
यहां पर बालक ध्ु्रव का उदाहरण दिया जा रहा है जो कि मां की सद्प्रेरणा से तपस्या के द्वारा वहां तक पहुंच गया जहां पहुंचने के लिए बड़े-बड़े तपस्वी सोचते रह जाते हैं। महाराज उत्तानपाद की दो रानियां थी। बड़ी सुनीति और छोटी सुरुचि। सुनीति के पुत्रा थे ध्ु्रव और सुरुचि के उत्तम। महाराज छोटी रानी सुरुचि से कुछ ज्यादा ही प्यार करते थे, इस वजह से राजमहल में महारानी सुनीति की उपेक्षा होती थी।
एक बार सुरुचि के पुत्रा उत्तम को महाराज उत्तानपाद गोद में लिए हुए बैठे थे उसी समय ध्ु्रव भी आकर महाराज की गोद में बैठने की चेष्टा करते हैं। जब राजा ने गोद में नहीं उठाया, तो वे मचलने लगे। ध्ु्रव को मचलते देखकर सौतेली मां सुरुचि को अच्छा नहीं लगा और वे राजा के समीप से ध्ु्रव को खींचते हुए बोली कि बेटा तू राजा की गोद में बैठने का अध्किारी नहीं है, यदि गोद में या राजगद्दी में बैठना ही है तो तपस्या कर और भगवान से वरदान मांग कि मैं माता सुरुचि की कोख से जन्म लूं।
बालक ध्ु्रव को विमाता सुरुचि के कहे हुए शब्द उनके हृदय में शूल जैसे चुभ गए, उनका मुख क्रोध् से लाल हो गया, आंखों से दुःख के आंसू बरसने लगे और रोते-रोते वे अपनी मां सुनीति के पास पहुंचे। विमाता सुरुचि के कहे हुए वचनों को सुनकर माता सुनीति सहम सी गई, उनके मन में अपार दुःख हुआ। वे ध्ैर्य बंधते हुए बोली बेटा! सुख या दुःख स्वयं के प्रारब्ध् का परिणाम होता है इसमें दूसरों को अमंगल का कारण नहीं मानना चाहिए। इसके अतिरिक्त तुम्हारी और मदद भी मैं क्या कर सकती हूं जो कि स्वयं महाराज के द्वारा उपेक्षित हूं। राज्य में कुछ भी अनैतिक कार्य होने पर सभी लोग अपना दुःख राजा को सुनाते हैं और मैं अपना दुःख किसे सुनाउफं।
बेटा! अच्छी शिक्षाएं कहीं से भी मिल रहीं हो अनुकरणीय होती हैं। तुम्हें विमाता सुरुचि के बताए हुए तप के मार्ग का ही अनुशरण करना चाहिए। बेटा तुम भगवान के श्रीचरणों का ध्यान करो, उन्हीं की आराध्ना करो, जिनका आश्रय लेने से सबकुछ सुलभ हो जाता है।
त्वमेव वत्साश्रय भृत्यवत्सलं
मुमुक्षुभिर्मग्य पदाब्जप(तिम्।
अनन्यभावे निजर्ध्मभाविते,
मनस्य वस्थाप्य भजस्व पूरुषम्।।
।।श्रीमद्भागवत।।
माता का प्रेरक उपदेश सुनकर ध््रुव अविलम्ब पिता के राज्य को छोड़कर तपस्या करने के लिए वन को चल दिए। जब इस बात की भनक महाराज को लगी। तो उन्होंने बालकों की स्वाभाविक मचल जाने की प्रवृत्ति को समझकर अपने सेवकों द्वारा बहला-पुफसलाकर लौटा लाने के लिए कहा। जब ध्ु्रव नहीं लौटे तो महाराज पुत्रा स्नेह में व्याकुल हो गए और ध््रुव को वापस घर लाने के लिए तरह-तरह के उपाय करने लगे, किन्तु ध््रुव पीछे नहीं मुड़े।
जब बालक ध्ु्रव वन में आगे की ओर बढ़ रहे थे तो मार्ग में नारदजी मिले। देवर्षि नारद ने उनकी छोटी उम्र देखकर लोभ और भय दिखाकर लौटाना चाहा। लेकिन ध््रुव ने कहा मुनि जी मैं इस तरह से भय खाकर अपना मार्ग परिवर्तन करने वाला नहीं हूं, यदि आप मेेरे लिए कुछ करना ही चाहते हैं तो ईश्वर प्राप्ति का मार्ग ही बताएं। बालक का दृढ़ निश्चय देखकर नारद जी ने उसे ‘‘¬ नमो भगवते वासुदेवाय’’ महामन्त्रा की दीक्षा दे दी।
पांच वर्ष का अबोध् बालक इस मंत्रा के द्वारा एकाग्र चित्त से भगवद् आराध्ना करने लगा। उन्होंने तपकाल में कुछ समय तक वन के पफल, पिफर कुछ समय तक जल पिफर वायु का सेवन किया। इसके बाद वायु का सेवन भी छोड़ दिया। भक्त ध््रुव के सांस न लेने से तीनों लोकों में वायु का बहाव थम गया। उनके तप के भार से ध्रती जल में चलती हुई नाव की तरह डगमगाने लगी।
इस अटल तप को देखकर भगवान को प्रकट होना पड़ा। भगवान ध््रुव के सामने खड़े हैं और ध्ु्रव आंख मूंदकर अपने तप में मग्न हैं। तब भगवान स्वयं उनके हृदय में दिव्य ज्योति बनकर प्रवेश कर गए। ध््रुव की आंखें खुली तो वे भगवान के श्रीचरणों में लकुटी की तरह गिर पड़े। अब वे भगवान की स्तुति करना चाहते थे लेकिन कुछ बोल नहीं पा रहे थे। उनकी उत्कट इच्छा को जानकर भगवान ने अपना वरदहस्त उनके सिर पर रखा, जिससे स्वमेव उनके मुख से दिव्य स्तुति के स्वरों का उच्चारण होने लगा। भगवान ने उन्हें गोद में उठा लिया और वह पद दिया जो दूसरों के लिए अप्राप्य है। ध्न्य हैं मां की सद्प्रेरणा, जिससे ध््रुव को ऐसे पद की प्राप्ति हुई।
आज भी नभमण्डल में ध््रुव प्रकाशमान हैं, सारे नक्षत्रा और तारामण्डल उसकी परिक्रमा लगाते हैं जहां भी दृढ़निश्चय की बात आती है तो वहां ध््रुव की उपमा दी जाती हैं। विवाह में वर-वध्ू को आचार्य द्वारा ध्ु्रव तारा दिखाया जाता है कि जिस तरह से यह तारा अपने स्थान पर अडिग है, वैसे ही आप दोनों इस विवाह बंध्न के सूत्रा में बंध्कर अडिग रहें। ध््रुुव के अटल निश्चय से हमें शिक्षा मिलती है कि यदि व्यक्ति में भगवान या किसी अप्राप्य वस्तु को पाने का जज्बा हो तो उम्र और परिस्थितियां बाध्क नहीं होती, सिपर्फ चाहत की जरूरत होती है।

परमपूज्य सद्गुरु श्री सुधंशु जी महाराज

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