धर्म ही मनुष्य और पशुओं के बीच के भेद को रेखांकित करता है – सर्वेश्वरी देवी

इंदौर, । भागवत केवल पोथी या ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन को श्रेष्ठ संस्कारों रूपी अलंकरणों से श्रृंगारित करने का खजाना है। भागवत भगवान का वांगमय अवतार हैं, जिसके एक-एक शब्द में कृष्ण का दिव्य स्वरूप विद्यमान है। भगवान ने भागवत के माध्यम से जन-जन तक सत्य को पहुंचाने का लक्ष्य रखा है। धर्म ही सत्य है और सत्य ही धर्म है। जहां सत्य होगा, वहां किसी न किसी रूप में भगवान का वास भी होगा ही। धर्म ही वह तत्व है, जो पशुओं और मनुष्यों में भेद करता है अन्यथा आहार, निद्रा, भय और मैथुन जैसे व्यवहार तो पशु भी करते ही हैं।
सुखदेव नगर एरोड्रम रोड स्थित सुखदेव वाटिका, पंचवटी हनुमान मंदिर पर चल रहे भागवत ज्ञान यज्ञ में नीलांचल धाम ओंकारेश्वर की भागवताचार्य सुश्री सर्वेश्वरीदेवी ने शनिवार को उक्त प्रेरक विचार व्यक्त किए। कथा शुभारंभ के पूर्व संयोजक ठा. विजयसिंह परिहार, सुनीलसिंह परिहार, गोल्ड क्वाइन ग्रुप के संजय अग्रवाल, सेवा भारती के वीरेन्द्र बोड़ाना एवं दिनेश अग्रवाल, विशाल परिहार, बी.एल.एफ. समूह के डॉ. ब्रजेश वर्मा, आदि ने व्यासपीठ का पूजन किया। आरती में सैकड़ों श्रद्धालु शामिल हुए। कथा में दिनोंदिन भक्तों की संख्या बढ़ती जा रही है। सुश्री सर्वेश्वरीदेवी द्वारा स्वरचित भजनों की मनोहारी प्रस्तुतियां भी भक्तों को भाव विभोर बनाए हुए है।
सुश्री सर्वेश्वरीदेवी ने कहा कि मनुष्य के जीवन में भक्ति का उदय होना चाहिए, लेकिन वह भक्ति ऐसी हो जो परमात्मा को भी स्वीकार हो। भागवत से पता चलता है कि भगवान ने धरा पर अवतार क्यों लिया, धर्म क्या है और मनुष्य को कब, क्यों और कैसे करना चाहिए। कलियुग में मनुष्य को सबसे कम आयु मिली है। सतयुग में मानव की आयु लाखों वर्ष होती थी। त्रेतायुग में हजारों वर्ष और द्वापर में हजार वर्ष रह गई। भागवत की रचना वेद व्यास ने बद्रीनाथ के पास भारत के आखिरी गांव माणा में सरस्वती नदी के किनारे बैठकर 5321 वर्ष वर्ष पहले की है। इतने वर्षों बाद भी सैकड़ों और हजारों बार भागवत का श्रवण कर लेने पर भी यदि भक्ति की हमारी प्यास तृप्त नहीं हुई है तो इसका मतलब यही है कि भागवत ही ऐसा ग्रंथ है, जो हजारों वर्ष बाद भी नित्य नूतन और प्रासंगिक है।