
सेंधवा; सुख व दुख आने पर कर्म सिद्धांत को स्वीकार करे , हम स्वयं ही हमारे सुख दुख के निर्माता है किसी दूसरे को दोष देकर काम होने वाला नहीं है।
उक्त उद्गार प्रवर्तक जिनेंद्र मुनि जी की अज्ञानुवर्तनी पूज्य श्री सुव्रताजी म.सा. ने जैन स्थानक में कहें। आपने कहा कि कर्म ही हंसता है और कर्म ही रुलाता है, यह कर्म बड़े बलवान होते हैं इसलिए कर्म प्रकृति को समझिए और फिर कर्म किजीए। जो व्यक्ति कर्म सिद्धांत को समझ कर धर्म साधना में तत्पर हो जाता है और स्वयं के कर्मों से प्राप्त सुख-दुख में समभाव धारण कर लेता है वह सुखी हो जाता है। जब तक हम धर्म आराधना में नहीं लगेंगे तब तक आत्र ध्यान व रोद्र ध्यान में लगे रहेंगे और यह आत्र ध्यान न हमें डूबाने वाला है। जीवन में आने वाले कष्टों को यदि हम समभाव से सहन कर लेते हैं तो हमारी आत्मशक्ति का विकास होता है। जो धर्म को समझता है वह जीवन में समभाव रखता है ओर संकट आने पर विचलित नहीं होता है। जब समभाव जीवन में आएगा तो संयम भाव दृढ़ हो जाएगा और जब संयम भाव दृढ़ हो गया तो वितरागता आती है।
आपने कहा कि परिस्थितियां चाहे जैसी हो हमें मनोस्थिति को शुद्ध रखना चाहिए। आज यदि कोई व्यक्ति धर्म क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य कर रहा है तो हम उसकी अनुमोदना करे ना कि निंदा करे, आज व्यक्ति दूसरे की उन्नति ओर प्रशंसा को देखकर इर्ष्या करता है पर ये इर्ष्या से स्वयं को कुछ भला होने वाला नहीं है।