
आशीष यादव धार
सुबह 5 बजे जब आम शहर सो रहा होता है, तब पीथमपुर की गलियों में सायरन गूंजने लगते हैं। मजदूरों की कतारें साइकिलों और मोटरसाइकिलों पर निकल पड़ती हैं। कोई स्टील यूनिट की ओर, कोई फार्मा, कोई ऑटोमोबाइल प्लांट की ओर। यह दृश्य हर दिन दोहराया जाता है—जैसे एक अनकहा अनुशासन। पर इस अनुशासन के पीछे है रोज़गार की मजबूरी, और एक ऐसी जिंदगी जो फैक्ट्री की सायरन से शुरू होती है और उसी के शोर में गुम हो जाती है।
कानून 8 घंटे का, काम 12 घंटे का
और सवाल करने पर नौकरी से बाहर सरकारी कानून साफ है—8 घंटे से अधिक काम नहीं। लेकिन पीथमपुर की यूनिटों में रोज़ाना 10 से 12 घंटे काम लिया जाता है। कोई सवाल करे तो कह दिया जाता है—लाइन में दूसरा खड़ा है। ओवरटाइम दिया भी जाए तो तय दर से कम, और कभी-कभी महीनों बाद। भय का यह माहौल मजदूरों के लिए अब आदत बन चुका है। वे जानते हैं—कहना मतलब हटना।
महिला मजदूरों की दोहरी लड़ाई—
काम के साथ सम्मान की भी महिला मजदूर अब फैक्ट्रियों में बड़ी संख्या में हैं, लेकिन वे बराबरी के अधिकार से दूर हैं। कई महिलाएं बताती हैं—पुरुषों से कम वेतन, पदोन्नति के सीमित अवसर और शोषण के खिलाफ बोलने पर चुप करा दिया जाना आम बात है। पीथमपुर की यूनिटों में ‘सुरक्षित कार्यस्थल’ सिर्फ एक बोर्ड पर लिखा होता है, असल ज़िंदगी में नहीं।
ठेकेदारी प्रथा—
हर साल बदलता ठेकेदार, हर बार अधूरी पहचान यहां स्थायी नौकरी एक सपना है। ज्यादातर मजदूर ठेके से जुड़े हैं। मतलब, हर ठेकेदार बदलने पर नए सिरे से दस्तावेज, नई पहचान, नई शर्तें। वर्षों से एक ही फैक्ट्री में काम करने के बावजूद वे स्थायी नहीं बन पाते। उनके नाम फैक्ट्री की रजिस्टर में दर्ज नहीं होते—वे बस “ठेके का आदमी” कहे जाते हैं।
ईएसआईसी अस्पताल:
कागज़ों पर सुविधा, हकीकत में जद्दोजहद पीथमपुर जैसे औद्योगिक क्षेत्र में अभी तक एक भी पूर्णत: सुसज्जित ईएसआईसी अस्पताल नहीं है। जो केंद्र हैं, वहां मशीनें खराब, स्टाफ कम और इलाज टलता रहता है। मजदूरों को मामूली बीमारियों के लिए भी निजी क्लिनिक की ओर भागना पड़ता है—वो भी अपने सीमित वेतन में से खर्च कर।
पीएफ की रकम, जो दिखती नहीं—
ना स्टेटमेंट, ना भरोसा हर महीने वेतन से पीएफ की राशि कटती है, लेकिन ना स्टेटमेंट मिलता है, ना जमा होने की गारंटी। शिकायत करो तो जवाब होता है—”ठेकेदार से पूछो”। कई मजदूरों के लिए तो पीएफ एक ऐसा सपना बन गया है जो नौकरी के अंत तक भी हकीकत नहीं बनता।
सरकारें बदलीं, घोषणाएं बदलीं…
पर ज़मीनी सच्चाई जस की तस हर चुनाव से पहले मजदूरों की चिंता जताई जाती है, हर मंच से उनके अधिकारों की बात होती है। लेकिन फैक्ट्री के फर्श पर उनकी हालत वैसी की वैसी है। कोई सुरक्षा नहीं, कोई स्थायीत्व नहीं—सिर्फ पसीना और खामोशी।
मजदूर दिवस —
एक दिन का भाषण, 364 दिन की चुप्पी 1 मई को मंच सजते हैं, मालाएं चढ़ती हैं, लेकिन मजदूरों को वो रोज़ चाहिए सम्मान, सुरक्षा, और स्थायीत्व। पीथमपुर में यह दिन भी आम दिनों जैसा ही निकल जाता है—फर्क सिर्फ इतना कि कहीं-कहीं ‘श्रमिक दिवस’ का बैनर टंगा होता है।
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