
सेंधवा। धन-संपत्ती तो उत्तराधिकारी को मिल सकती है, पर वीतरागता स्वयं के श्रम से और पुरूषार्थ से ही मिलती है। जब हम स्वयं को समर्पित करेंगे तब वीतरागता का वरण होगा। जब तक हमारे जीवन से राग-द्वेष समाप्त नहीं होंगे तब तक वीतरागता नहीं आने वाली और उसके लिए हमें स्वयं को देखना होगा, स्वयं का अवलेाकन करना होगा।
ये विचार मंगलवार को देवी अहिल्या मार्ग स्थित जैन स्थानक में आर्चाय विजयराजजी मसा के आज्ञानुवर्ती रेखाजी मसा ने व्यक्त किये। रेखाजी मसा ने कहा कि जिस प्रकार जल का स्वभाव शीतलता है, चाहे हम उसे कितना भी गर्म कर ले पर वह कुछ समय मे ठंडा हेाकर अपनी स्वभाव दशा में आ जाता है। उसी प्रकार आत्मा का स्वभाव ज्ञान- दर्शन – चरित्र व तप मे रमण करना है, जबकि क्रोध-मान-माया-अहंकार ये आत्मा की विभाव दशा है। हम स्वयं का चिंतन करे कि हम कौन सी दशा में अपना जीवन जी रहे है, ध्यान रखना यह विभाव दशा हमे गर्त मेे ले जाने वाली है।
पाप कभी पचता नहीं-
रेखाजी मसा ने आपने कहा कि हम इस बात को अच्छी तरह समझ ले कि पाप परमात्मा की विरोधी दशा है, पाप कभी पचता नहीं है। पाप करते समय तो हमे पसीना नहीं आता है, लेकिन पाप का फल भोगते समय पसीना आ जाता है। याद रखना यदि हम पाप को निमंत्रण देंगे तो उसका फल भी हमे ही भोगना है। कर्मदशा बड़ी खतरनाक होती है। जल्लाद एक बार दया करके किसी को छोड़ सकता है, लेकिन किए हुए कर्म का फल किसी को छोड़ने वाला नहीं। किए हुए पाप कर्माें का फल भोगना ही पड़ता है। इसलिए कर्माें को करने में बहुत सावधानी रखनी चाहिये। आपने कहा कि जैसा हम व्यवहार करते है वैसा फल मिलने ही वाला है। इसलिए हम स्वयं को देखने का प्रयास करें।
यह रहे मौजूद-
उक्त धर्मसभा मे घेवरचंद बुरड, बी.एल. जैन, नंदलाल बुरड़, प्रकाष सुराणा, के.सी. पालीवाल, महेश मित्तल, अशोक सकलेचा, राजेन्द्र कांकरिया, महावीर सुराणा, सुरेश ओस्तवाल, तेजस शाह, मितेश बोकड़िया, भुषण जैन, राहुल बुरड़ सहित अनेक श्रावक-श्राविकाऐं उपस्थित थे।