147 वीं पुण्य तिथि पर निमाड़ के योद्धा के योगदान से परिचित हुई युवा पीढ़ी, भीमा नायक ने तात्या टोपे का किया था सहयोग

बड़वानी, सत्याग्रह लाइव।
आज अमर बलिदानी भीमा नायक जी की 147 वीं पुण्यतिथि है। इतिहासकार डॉ. पुष्पलता खरे ने अपने अनुसंधान के माध्यम से भीमा नायक जी की शहादत की तिथि की खोज की थी। डॉ. खरे के द्वारा जुटाये गये भीमा नायक जी के मृत्यु प्रमाण-पत्र के अनुसार 29 दिसंबर, 1876 को अंडमान में काला पानी की सजा भुगतते हुए ही भीमा नायक मातृभूमि पर न्यौछावर हुए थे। उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजों से डटकर मुकाबला किया था। इस क्रांति के एक राष्ट्रीय नायक तात्या टोपे 21 नवम्बर, 1858 को बड़वानी आये थे। भीमा नायक ने उन्हें सहयोग प्रदान किया था। ये सब इतिहास की गौरवपूर्ण इबारतें हैं, जिन्हें पढ़कर हम अभिभूत हो जाते हैं। इतिहासकार डॉ. षिवनारायण यादव ने भीमा नायक जी पर बहुमूल्य अनुसंधान किया है। उनके द्वारा लिखित पुस्तक से असंख्य लोग भीमा नायक जी के योगदान से परिचित हो सके हैं। ये बातें शहीद भीमा नायक शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बड़वानी के स्वामी विवेकानंद कॅरियर मार्गदर्षन प्रकोष्ठ द्वारा भीमा नायक जी की 147 वीं पुण्यतिथि पर आयोजित कार्यषाला में डॉ. मधुसूदन चौबे ने कहीं। यह आयोजन प्राचार्य डॉ. दिनेष वर्मा एवं प्रभारी प्राचार्य डॉ. वीणा सत्य के मार्गदर्षन में संपन्न हुआ।
पीपीटी से बताई जीवन यात्रा
कार्यकर्तागण प्रीति गुलवानिया और वर्षा मुजाल्दे ने बताया कि डॉ. चौबे ने पावर पाइंट प्रजेंटेषन के माध्यम से भीमा नायक जी के जीवन यात्रा के महत्वपूर्ण पड़ावों से युवाओं को अवगत कराया। भीमा नायक जी के योगदान से युवा पीढ़ी अवगत हुई और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की।

यह है संक्षिप्त इतिहास
डॉ. चौबे ने प्रीति गुलवानिया और अंतिम मौर्य द्वारा तैयार किये गये पावर पाइंट प्रजेंटेशन के माध्यम से बताया कि भीमा नायक कई वर्ष बड़वानी रियासत के राणा जसवंत सिंह जी की सेवा में रहे, जहां उन्हें पचास रुपये प्रति माह वेतन दिया जाता था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने अंग्रेजों को जमकर टक्क्र दी और चार स्थानों पर बड़ी लड़ाइयां हुईं। 24 अगस्त, 1857 को पंचसावल की लड़ाई, 11 अप्रैल, 1858 की अंबापानी की लड़ाई, 4 फरवरी, 1859 की धाबाबावड़ी की लड़ाई, 09 फरवरी, 1859 की पंचबावली (रामगढ़) की लड़ाई। उन पर क्रमषः पांच सौ, एक हजार और दो हजार रुपये का इनाम घोषित किया गया। चंदर पिता गुलाब ने लालच में आकर मुखबिरी कर दी फलस्वरूप बालकुआं से वे 2 अप्रैल, 1867 को गिरफ्तार हुऐ। उन पर इन्दौर में मुकदमा चला। 9 नवंबर, 1867 को अंग्रेज न्यायाधीष ई. डब्ल्यू. थाम्पसन ने भीमा को बेड़ी और हथकड़ियों में आजीवन समुद्र पार कारवास में रखने की सजा सुनाई गई। इसके उपरांत भीमा को अंडमान निकोबार द्वीप समूह के पोर्ट ब्लेयर में भेजा गया। भारत की मुख्य भूमि से दूर रहते हुए 9 वर्ष बाद 29 दिसंबर, 1876 को वे शहीद हो गये। संचालन वर्षा मुजाल्दे ने किया। आभार सुरेष कनेष़ ने व्यक्त किया। सहयोग पूनम कुशवाहा, कन्हैयालाल फूलमाली, प्रदीप ओहरिया, सुनील मेहरा, नमन मालवीया, अंषुमन धनगर, मोनिका अवासे ने किया।