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जन प्रतिनिधि करें आत्ममूल्यांकन – वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर टिप्पणी

“जीत” कोई जीत नहीं होती, अगर वह जनता के दर्द को सुनने से पहले गर्व व अहं में डूब जाए। आज जब नेता चुनाव जीतते हैं, तो जश्न मानते हैं, पटाखे फूटते हैं और आमजन को प्रसन्नता के साथ परेशानी भी परोस देते हैं । सोशल मीडिया पर तस्वीरें पोस्ट होती हैं और नेता खुद को “जनता का मसीहा” घोषित कर देता है, पर क्या यही असली जीत है?

वर्तमान राजनीतिक माहौल में एक खतरनाक प्रवृत्ति उभर कर सामने आ रही है — नेताओं में आत्ममूल्यांकन की कमी। जब कोई नेता चुनाव जीतता है, तो वह यह मान बैठता है कि जनता ने उसे, उसकी नीतियों, उसके काम और उसके चेहरे को चुना है। यह अधूरा सच है, कई बार पार्टी की लहर, राजनैतिक विमर्श, जन भावनाएँ, मीडिया प्रबंधन आदि भी इसके लिए ज़िम्मेदार होती हैं । एक और हकीकत यह है कि अधिकांश मतदाता कई बार ‘कम विकल्पों’ में से ‘कम खराब’ को चुनते हैं। ऐसी स्थिति में नेता का घमंड और आत्मसंतोष, समाज के लिए खतरा बन सकता है।

जब कोई नेता यह मान लेता है कि “मेरी जीत मेरी योग्यता से है, मेरे दम पर है” तो वह अगले ही क्षण से आमजन से कटने लगता है। वह आम आदमी की भाषा भूलने लगता है, समस्याओं से दूरी बना लेता है और धीरे-धीरे सत्ता के आईने में अपनी ही छवि को देखकर आत्ममुग्ध हो जाता है। जनता यह सब देखती है और महसूस करती है कि उसने जिसे प्रतिनिधित्व के लिए चुना, वह अब केवल स्वयं का प्रचारक बन गया है। ऐसे में वह खुद को ठगा हुआ महसूस करती है। मगर बीच-बीच में वाकपटुता और लोकलुभावन वादों में उलझती रहती है ।

आत्ममूल्यांकन केवल किसी गलती की स्वीकारोक्ति नहीं होता, यह नेतृत्व की गई सबसे बड़ी नैतिक जिम्मेदारी होती है। क्या मैंने सबकी बात सुनी? क्या मेरे फैसले निष्पक्ष थे? क्या मेरी प्राथमिकताएँ जनता की ज़रूरतों से मेल खाती थीं? क्या मैं सत्ता में आने के बाद ज़मीन से जुड़ा रहा? यदि कोई नेता नियमित रूप से इन सवालों से खुद को टटोलता है, तो न केवल वह बेहतर जनप्रतिनिधि बनता है, बल्कि जनता का विश्वास भी जीतता है।
आज कई स्थानीय और क्षेत्रीय नेता अपनी जीत को व्यक्तिगत उपलब्धि मान बैठते हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि कई बार जनता केवल पार्टी की विचारधारा, शीर्ष नेतृत्व के चेहरे या विरोधी के प्रति नाराज़गी के चलते वोट देती है — न कि स्थानीय नेता की योग्यता के कारण। ऐसे में छोटे नेताओं को यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि जीत का श्रेय केवल उन्हें है। बल्कि उन्हें और अधिक विनम्र होकर यह सोचना चाहिए कि क्या मेरी लोकप्रियता मेरी पार्टी से परे भी कोई मूल्य रखती है? क्या मैंने वोटर का भरोसा जीता है? क्या मैं केवल पार्टी की लहर में बहकर आया हूँ, या मैं ज़मीन से जुड़ा जनप्रतिनिधि भी हूँ? यह सवाल न सिर्फ नेता को आत्ममुग्धता से बचाते हैं, बल्कि उसे जनता के प्रति अधिक जिम्मेदार भी बनाते हैं।

हर नेता को याद रखना चाहिए — वोट जीतना आसान है, पर भरोसा जीतना कठिन और यह भरोसा तभी बनता है जब नेता जनता के बीच रहकर, आलोचना को स्वीकार कर, आत्ममंथन करे। सत्ता सेवा का माध्यम बने, स्वार्थ का नहीं — यही आत्ममूल्यांकन की पुकार है। पार्टी की छतरी तुम्हें चुनाव जिता सकती है, पर जनता की नज़रें ही तुम्हें टिकाए रख सकती हैं। नेता का असली मूल्य सत्ता के शोर में नहीं, संवेदनशीलता की चुप्पी में होता है।

— कृष्णार्जुन बर्वे, सामाजिक कार्यकर्ता, इंदौर

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