विविध
हमने बोलना तो सीख लिया, लेकिन क्या नहीं बोलना यह अब तक नहीं सीखा – किरीट भाई
गुरू पूर्णिमा महोत्सव में उमड़ी सैकड़ों साधकों की श्रद्धा
इंदौर से विनोद गोयल की रिपोर्ट :-
इंदौर। अपने बच्चों का जीवन बर्बाद होने से बचाना है तो उनके हाथों से मोबाइल तुरंत छीन लीजिए। रात दो-दो बजे तक मोबाइल पर अंगुलियां चलाने वाले बच्चे संस्कार भी सोशल मीडिया से ही सीख रहे हैं। हमारे बच्चों में बहुत सी काबिलियत और क्षमताएं हैं, लेकिन हम उन्हें हतोत्साहित कर उन्हें दबाने की कोशिश कर रहे हैं। दरअसल, हमने बोलना तो सीख लिया, लेकिन क्या नहीं बोलना, यह अब तक नहीं सीखा है। जिस दिन हम यह सीख जाएंगे, उस दिन बात ही अलग होगी।
प्रख्यात संत किरीट भाईजी ने साउथ तुकोगंज स्थित जाल सभागृह में आयोजित गुरू पूर्णिमा महोत्सव में व्यक्त किए। इस दौरान ठाकुरजी के स्नान, मनोरथ आरती, संकीर्तन, गुरू दीक्षा, प्रश्नोत्तरी सहित विभिन्न कार्यक्रमों में सैकड़ों श्रद्धालु शामिल हुए। प्रारंभ में तुलसी परिवार की ओर से सुनील मालू, राजेश नेमा, संजय सोनी, मीतेश जोशी आदि ने दीप प्रज्ज्वलन कर महोत्सव का शुभारंभ किया। गुरूवंदना सतीश जोशी ने प्रस्तुत की। महोत्सव में भाग लेने के लिए बड़ी संख्या में उज्जैन, धार, देवास, खरगोन, खंडवा सहित आसपास के जिलों के भक्त भी आए थे। संचालन संजय सोनी ने किया और आभार माना सुनील मालू ने।
खचाखच भरे जाल सभागृह में अपने आशीर्वचन की शुरुआत किरीट भाईजी ने ‘ जय गोपाल राधे-राधे गोविंद-गोविंद’ भजन से की। उन्होंने कहा कि संसार का प्रत्येक जीव अपने जीवनकाल में सुख, आनंद और शांति की खोज में जुटा रहता है। यह मानकर नहीं चलें कि जो लोग मंदिर, तीर्थ आदि की यात्रा करते हैं या ज्यादा दान देते हैं उनके मन में भगवान को पाने की ज्यादा लगन रहती है। जेल के कैदियों का एक प्रसंग सुनाते हुए भाईजी ने कहा कि हम सब भी भव सागर रूपी जेल में आए हैं। हम सब कैदी हैं। हमारे सामने भी कई समस्याएं हैं। हम भी इस भव सागर से मुक्ति चाहते हैं। हम अपनी काबीलियत और क्षमता के बारे में बार-बार अपने मुंह से ही बखान करना शुरू कर देते हैं। इस जुबानी खर्च की कोई कीमत नहीं होती। चाणक्य नीति के अनुसार अपनी योजनाएं, बैंक बैलेंस, घर में विवाद या मनमुटाव की बातों को बाहर नहीं बताना चाहिए। अपने स्वास्थ्य के बारे में भी दुनिया को बताने की जरूरत नहीं है। हमारे शरीर में 265 हड्डियां हैं, लेकिन जुबान में हड्डी नहीं होती फिर भी अकेले जुबान सभी 265 हड्डियों को चकनाचूर करा सकती है। हमारी बातों का तरीका शांति पूर्ण होना चाहिए। दो लोगों के बीच संवाद में कूदना अच्छी बात नहीं होती। दूसरों की पूरी बातें सुने और तीन सैकंड बाद उत्तर दें। आजकल के युवाओं को फुर्सत नहीं है कि वे सब्र रखें। हम अपने बच्चों से कभी नहीं कहते कि रामायण या गीता का एक पाठ रोज पढ़ा करिए। हमारी उम्र तो निकल गई, लेकिन अब बच्चों को संभालना जरूरी है। ईरान से सुमात्रा तक भारत एक ही था, लेकिन 2024 के बाद क्या होगा, कहना मुश्किल है। हमारी प्राथमिकताएं बदल गई हैं। हम खुद अपना गुणगान करने लगते हैं। दूसरों के उत्साह और हौंसलों को दबाने लगते हैं। बच्चों को बचपन से ही रोकना-टोकना शुरू कर देते हैं। अनुभव गलतियों से मिलता है, लेकिन हम अपने बच्चों को जब गलतियां ही नहीं करने देंगे तो अनुभव कहां से मिलेगा। हमने अपने बच्चों को बड़ा होने ही नहीं दिया। उन्हें जोश के साथ होश में लाने की जरूरत है। इस मौके पर दूर-दूर से आए सैकड़ों भक्तों ने कतारबद्ध होकर ठाकुरजी की साक्षी में भाईजी से ब्रह्म संबंध भी प्राप्त किया। इसके पूर्व भाईजी ने ठाकुरजी का स्नान, पूजन एवं अन्य रस्में भी पूरी की।
उन्होंने कहा कि हमारे मित्र ऐसे होना चाहिए, जो हमारा मनोबल बढ़ाएं और जो हमारे जीवन को संस्कारों से समृद्ध बनाएं। जीवन में कई तरह के व्यवधान आते रहते हैं। आजकल लोगों को परमात्मा पर भरोसा कम हो रहा है। परमात्मा का भरोसा हमारी समस्या से बड़ा होना चाहिए। पहले बच्चे दादा-दादी से छोटी-छोटी कहानियां सुनते थे, लेकिन आजकल सोशल मीडिया से संस्कार सीखे जा रहे हैं। माताएं हमारे पास आशीर्वाद लेने आती हैं, लेकिन मैं कहता हूं कि हमारे आशीर्वाद से न तो आपका बच्चा पास होगा और न ही पति-पत्नी के झगड़े में सुलह होगी। यह काम आपको खुद ही करना होगा। यह ध्यान रखें कि कभी पत्नी का अपमान न करें। जीवन को सुंदर बनाना है तो किसी की निंदा न करें। न निंदा करो न निंदा सुनो। हम खुद की आहट को देखते नहीं और दूसरों के पैरों पर निगरानी रखने लगते हैं। कैकेयी कुसंग और मंथरा लोभ की प्रतीक हैं। निंदा के कारण ही कैकेयी का सुखी जीवन नष्ट हो गया। विचार कर्म की जननी है। कर्म पहले मन में विचार के रूप में प्रकट होता है। जैसे कर्म वैसे फल। दूसरों की खोपड़ी के विचार जानने की कला भगवान ने किसी को नहीं दी है। मन और विचार की शुद्धि के लिए भी हमारे ऋषि-मुनि जंगल में जाकर तपस्या और मंथन करने के बाद ग्रंथ लिखते थे। बंधन से मुक्ति तभी मिलेगी, जब हम मन को समझाने में, संभालने में सफल होंगे। मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार – ये चारों भाई-भाई है। मन को जो समझा ले वह मुनि। मन को याद दिलाते रहें कि तू कौन है। धर्मग्रंथों का पाठ अर्थात बार-बार दोहराना। कलियुग में नाम स्मरण ही सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। समय निकालें और दूसरों की भलाई, गौसेवा एवं परमार्थ के कामों में लगाएं।